अपने अतीत का मनन और मंथन हम भविष्य के लिए संकेत पाने के प्रयोजन से करते हैं । वर्तमान मे अपने आपकों असमर्थ पाकर भी हम अपने अतीत मे अपनी क्षमता का परिचय पाते हैं । इतिहास घटनाओं के रूप में अपनी पुनरावृत्ति नहीं करता । परिवर्तन का सत्य ही इतिहास का तत्व है परन्तु परिवर्तन की इस श्रृंखला में अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिए व्यक्ति औेर समाज का प्रयत्न निरन्तर विद्यमान रहा है । वही सब परिवर्तनों की मूल प्रेरक शक्ति है ।
इतिहास का तत्व विभिन्न परिस्थितियों मे व्यक्ति और समाज की रचनात्मक क्षमता का विश्लेषण करता है । मनुष्य केवल परिस्थितियों को सुलझाता ही नहीं, वह परिस्थितियों का निर्माण भी करता है । वह प्राकृतिक और भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करता है, समाजिक परिस्थितियों का वह सृष्टा है ।
इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परम्परा में आत्म-विश्लेषण है । जैसे नदी मे प्रतिक्षण नवीन जल बहने पर भी नदी का अस्तित्व और उसका नाम नहीं बदलता वैसे ही किसी मे जन्म-मरण की निरन्तर क्रिया और व्यवहार के परिवर्तन से वह जाति नहीं बदल जाती । अतीत में अपने रचनात्मक सामथर्य और परिस्थितियों के सुलझाव और रचना के लिए निर्देश पाती है ।
इतिहास के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक रत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है । सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीडा है । इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था- "न मानुषात् श्रेष्ठतरं ही किंचित् !"
मनुष्य से बडा है केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान । अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है ।
यह विचार चितंन प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल जी का है जो उन्होने अपने उपन्यास दिव्या में प्रस्तुत किया है । उनका यह चिंतन आज के युग मे भी प्रासगिंक है ।
इतिहास का तत्व विभिन्न परिस्थितियों मे व्यक्ति और समाज की रचनात्मक क्षमता का विश्लेषण करता है । मनुष्य केवल परिस्थितियों को सुलझाता ही नहीं, वह परिस्थितियों का निर्माण भी करता है । वह प्राकृतिक और भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करता है, समाजिक परिस्थितियों का वह सृष्टा है ।
इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परम्परा में आत्म-विश्लेषण है । जैसे नदी मे प्रतिक्षण नवीन जल बहने पर भी नदी का अस्तित्व और उसका नाम नहीं बदलता वैसे ही किसी मे जन्म-मरण की निरन्तर क्रिया और व्यवहार के परिवर्तन से वह जाति नहीं बदल जाती । अतीत में अपने रचनात्मक सामथर्य और परिस्थितियों के सुलझाव और रचना के लिए निर्देश पाती है ।
इतिहास के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक रत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है । सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीडा है । इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था- "न मानुषात् श्रेष्ठतरं ही किंचित् !"
मनुष्य से बडा है केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान । अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है ।
यह विचार चितंन प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल जी का है जो उन्होने अपने उपन्यास दिव्या में प्रस्तुत किया है । उनका यह चिंतन आज के युग मे भी प्रासगिंक है ।
2 टिप्पणियां:
"itihas vishwas hi nhi vishleshan ki vastu hai,itihas manushya ki apni prampra me aatam vishleshan hai"kitne uttam aue prasangik vichar hai shree yashpal ji ke ,usko kitne umda treeke se prastut kiya vikas gupta ji ne ,bahoot hi sunder sampadan ke liye vikas ji ko badhai ,
जी धन्यवाद
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