मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

जीवन दर्शन

जीवन व्यवहार का अभिन्न अंग है शब्द । इसके बिना व्यवहार जीवन का आदान प्रदान बहुत सीमित हो जाता है । क्या शब्द की महत्ता केवल सम्प्रेषण ही है अथवा व्यवहार बनाए रखने तक ही है ? आचार्यों ने जितना महत्व शब्द का बताया, उससे कहीं बङा मौन का भी बताया है । क्या मौन में शब्द लुप्त हो जाते है ? हर देश की अपनी भाषा और हर भाषा की अपनी वर्णमाला होती है । क्या वर्णमाला का उद्देश्य मात्र भाषा का स्वरूप तय करना ही होता है ? जीवन में शब्द को ही मंत्र के रूप में पूजा जाता है । इनके पीछे कौन से सिद्धांत है ?
                                                                           (मानस-२ से)
               मेरा मूलमंत्र है जहाँ से जो कुछ अच्छा मिले, सीखना चाहिए ।
                                                         - स्वामी विवेकानन्द

1 टिप्पणी:

virendra sharma ने कहा…

शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .छांट के लाए हैं आप विचार के अनमोल मोती मनके विमर्श के .