जल ही जीवन है। जल जीवन का सार है। प्राणी कुछ समय के लिए भोजन के बिना तो रह सकता है लेकिन पानी के बिना नहीं। जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। अतः जल जीवन की वह ईकाई है जिसमें जीवन छिपा है। वर्तमान में इस जल पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जल की कमी ने मानव जाति के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। जल के लिए दुनिया के कईं राष्ट्रों में हालात विकट है। अगर हम वैश्विक परिदृष्य पर गौर करें तो कईं चैकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। विश्व में 260 नदी बेसिन इस प्रकार के हैं जिन पर एक से अधिक देशों का हिस्सा है| इन देशों के बीच जल बंटवारे को लेकर किसी प्रकार का कोई वैधानिक समझौता नहीं है। दुनिया के कुल उपलब्ध जल का एक प्रतिषत ही जल पीने योग्य है। हमें पीने का पानी ग्लेष्यिरों से प्राप्त होता है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ा है और इस कारण भविष्य में जल संकट की भयंकर तस्वीर सामने आ सकती है। दुनिया में जल उपलब्धता 1989 में 9000 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति थी जो 2025 तक 5100 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति हो जाएगी और यह स्थिति मानव जाति के संकट की स्थिति होगी। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में आधी से ज्यादा नदियाँ प्रदूषित हो चुकी है और इनका पानी पीने योग्य नहीं रहा है और इन नदियों में पानी की आपूर्ति भी निरन्तर कम हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया भर में 86 फीसदी से अधिक बीमारियों का कारण असुरक्षित व दूषित पेयजल है। वर्तमान में 1600 जलीय प्रजातियां जल प्रदूषण के कारण लुप्त होने के कगार पर है। विश्व में 1.10 अरब लोग दूषित पेयजल पीने को मजबूर है और साफ पानी के बगैर अपना गुजारा कर रहे हैं। इसी संदर्भ में अगर हम भारतीय परिदृष्य पर गौर करें तो हालात और भी विकट है। वर्तमान में 303.6 मिलियन क्यूबिक फीट पानी प्रतिवर्ष एशिआई नदियों को ह&
रविवार, 8 जनवरी 2012
आम आदमी
हर बात के प्रत्यक्ष दर्शी हैं हम सारे फिर भी न जाने क्यों अप्रत्यक्ष भाव में जिए जा रहे हैं हम जरुरत तो हमारी भी जहाज की है फिर भी समंदर का सफ़र नाव में किये जा रहे हैं हम जब से मिला है "आम आदमी" का तमगा बस उस शब्द के स्वभाव में जिंदगी जिए जा रहे हैं हम अगर प्रत्यक्ष दर्शी हो तो गवाह बनो समंदर पार होना है तो जहाज बनो अगर आदमी हो तो आम नहीं, खास बनो कब तक साक्षी रहोगे, अब तो साक्ष्य बनो....
शुक्रवार, 6 जनवरी 2012
राजनीति का शिकार लोकपाल विधेयक
हर बार किसी न किसी कारण से पारित होने से रुका लोकपाल विधेयक इस बार देशभर में कथित रूप से उठे बड़े जनआंदोलन के बावजूद राजनीति की भेंट चढ़ गया। राजनीतिज्ञों ने तो राजनीति की ही, एक पवित्र उद्देश्य के लिए आवाज उठाने के बाद राजनीति के दलदल में फंसी टीम अन्ना भी पटरी से उतर गई। असल में लोकपाल के लिए दबाव बनाने की जिम्मेदारी का निर्वाह कर पाने में जब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा विफल हुआ तो इसकी जिम्मेदारी टीम अन्ना ने ली और आमजन में भी आशा की किरण जागी, मगर वह भी अपने आंदोलन को निष्पक्ष नहीं रख पाई और सरकार पर दबाव बनाने की निष्पक्ष पहल के नाम पर सीधे कांग्रेस पर ही हमला बोलने लगी। पर्दे के पीछे से संघ और भाजपा से सहयोग लेने के कारण पूरा आंदोलन राजनीतिक हो गया। ऐसे में जाहिर तौर पर कांग्रेस सहित सभी दलों ने खुल कर राजनीति की और लोकपाल विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में अटक गया। भले ही गांधीवादी विचारधारा के कहे जाने वाले अन्ना को देश का दूसरा गांधी कहने पर विवाद हो, मगर यह सच है कि पहली बार पूरा देश व्यवस्था परिवर्तन के साथ खड़ा दिखाई दिया। दुनिया के अन्य देशों में हुई क्रांति से तुलना करते हुए लोगों को लग रहा था कि हम भी सुधार की दिशा में बढ़ रहे हैं। मीडिया की ओर से मसीहा बनाए गए अन्ना में लोगों ने अपूर्व विश्वास जताया, मगर उनकी टीम को लेकर उठे विवादों से आंदोलन की दिशा बदलने लगी। जाहिर तौर पर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस पर सीधे हमलों की वजह से प्रतिक्रिया में विवाद खड़े किए जाने लगे, मगर टीम अन्ना के लोग उससे विचलित हो गए और उन्होंने सीधे कांग्रेस पर हमले तेज कर दिए। देश हित की खातिर चल रहा आंदोलन कांग्रेस बनाम टीम अन्ना हो गया। इसके लिए जाहिर तौर पर दोनों ही जिम्मेदार थे। रहा सवाल भाजपा व अन्य दलों का, तो उन्हें मजा आ गया। वे इस बात खुश थे कि कांगे्रस की हालत पतली हो रही है और इसका फायदा उन्हें आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मिलेगा। आंदोलन के राजनीतिक होने के साथ ही उनकी दिलचस्पी इसमें नहीं थी कि एक सशक्त लोकपाल कायम हो जाए, बल्कि वे इसमें ज्यादा रुचि लेने लगे कि कैसे कांग्रेस को और घेरा जाए। रही सही कसर टीम अन्ना ने हिसार के उप चुनाव में खुल कर कांग्रेस का विरोध करके पूरी कर दी। वे मौखिक तौर पर तो यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर धरातल पर कांग्रेस से सीधे टकराव मोल लेने लगे। यहां तक कि अन्ना ने आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हराने का ऐलान कर दिया। खुद को राजनीति से सर्वथा दूर बताने वाली टीम अन्ना ने, जो कि पहले राजनेताओं से दूरी कायम रख रही थी, बाद में अपने मंच पर ही राजनीतिक दलों को बहस करने का न्यौता दे दिया। स्वाभाविक रूप से उनके मंच पर कांग्रेस नहीं गई, लेकिन अन्य दलों ने जा कर टीम अन्ना के लिए अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर किया। यद्यपि इससे अन्ना का आंदोलन पूरी तरह से राजनीतिक हो गया, मगर इससे यह उम्मीद जगी कि अब सत्तारूढ़ दल और दबाव में आएगा और इस बार लोकपाल विधेयक पारित हो जाएगा। मगर अफसोस कि जैसे ही विधेयक संसद में चर्चा को पहुंचा, कांग्रेस के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबन्धन यूपीए और भाजपा के नेतृत्व वाले मुख्य विपक्षी गठबन्धन एनडीए सहित सभी छोटे-बड़े विपक्षी दलों ने खुल कर राजनीति शुरू कर दी। लोकसभा में तो कांग्रेस ने अपने संख्या बल से उसे पारित करवा लिया, मगर राज्यसभा में कमजोर होने के कारण मात खा गई। कई स्वतंत्र विश्लेषकों सहित भाजपा व अन्य दलों ने कांग्रेस के फ्लोर मैनेजमेंट में असफल रहने की दुहाई दी। सवाल उठता है कि जब संख्या बल कम था तो विधेयक के पारित न हो पाने के लिए सीधे तौर पर कांग्रेस कैसे जिम्मेदार हो गई। लोकसभा में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का संशोधन भी विपक्ष के असहयोग के कारण गिरा तो राज्यसभा में भी इसी वजह से विधेयक लटक गया। निष्कर्ष यही निकला कि यह कांग्रेस का नाटक था, मगर यह नाटक करने का मौका विपक्ष ने ही दिया। विपक्ष की ओर से इतने अधिक संशोधन प्रस्ताव रख दिए गए कि नियत समय में उन पर चर्चा होना ही असंभव था। यहां तक कि कांग्रेस का सहयोगी संगठन तृणमूल कांग्रेस भी पसर गया। मजेदार बात ये रही कि इसे भी कांग्रेस की ही असफलता करार दिया गया। कुल मिला कर इसे कांग्रेस का कुचक्र करार दे दिया गया है, जब कि सच्चाई ये है कि हमाम में सभी नंगे हैं। कांग्रेस ज्यादा है तो विपक्ष भी कम नहीं है। अन्ना के मंच पर ऊंची-ऊंची बातें करने वाले संसद में आ कर पलट गए। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि जो लोग भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाते रहे हैं, वे संसद में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये घडिय़ाली आंसू बहाते नजर आये, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। संसद में सभी दल अपने-अपने राग अलापते रहे, लेकिन किसी ने भी सच्चे मन से इस कानून को पारित कराने का प्रयास नहीं किया। सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल पारित करवाने का दावा करने वाले यूपीए एवं एनडीए की ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा की पोल खुल गयी। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन एक ओर तो अन्ना को उकसाते और सहयोग देते नजर आये, वहीं दूसरी ओर गांधीजी द्वारा इस देश पर थोपे गये आरक्षण को येन-केन समाप्त करने के कुचक्र भी चलते नजर आये। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने अन्दरूनी तौर पर यह तय कर लिया था कि लोकपाल को किसी भी कीमत पर पारित नहीं होने देना है और देश के लोगों के समक्ष यह सिद्ध करना है कि दोनों ही दल एक सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल कानून बनाना चाहते हैं, वहीं दूसरी और सपा-बसपा जैसे दलों ने भी विधेयक पारित नहीं होने देने के लिये संसद में फालतू हंगामा किया। अलबत्ता वामपंथी जरूर कुछ गंभीर नजर आए, मगर वे इतने कमजोर हैं, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान नजर आई। कुल मिला कर देश में पहली बार जितनी तेजी से लोकपाल की मांग उठी, वह भी फिलहाल फिस्स हो गई, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि इस मांग की झंडाबरदार टीम अन्ना की साख भी कुछ कम हो गई और दिल्ली व मुंबई में आयोजित अनशन विफल हो गए व जेल भरो आंदोलन भी स्थगित हो गया। अब देखना ये है कि टीम अन्ना फिर से माहौल खड़ा कर पाती है या नहीं और यह भी कि कांग्रेस का अगले सत्र में परित करवाने का दावा कितना सही निकलता है।
बुधवार, 4 जनवरी 2012
खाद्य सुरक्षा बिल पर विचार
सरकार के "आधिकारिक अनुमान" के अनुसार देश में कम से कम 41 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें खाद्य सुरक्षा बिल के तहत भोजन दिया जाना अति-आवश्यक है…, जबकि अन्य 22 करोड़ ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का ही भोजन मिलता है। भूखे लोगों की यह जनसंख्या, 26 अफ़्रीकी देशों की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। जबकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये अध्ययन एवं "विश्व भूख सूचकांक" के अनुसार 88 देशों में से भारत का स्थान 66 वां है… ========
परिवर्तन तब नहीं आता जब आपकी परिस्थितयाँ सुधरती है |परिवर्तन तब आता है जब आप अपनी परिस्थितियों को सुधारने का संकल्प ले लेते हैं |
सोमवार, 2 जनवरी 2012
नववर्ष की शुभकामना
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे शन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ इन्ही भावनाओ के साथ,सभी को मेरी तरफ से, नये साल की शुभकामनाए....
रविवार, 1 जनवरी 2012
हिन्दी भाषा की स्थिति
हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि - 1. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है, 2. वह सबसे अधिक सरल भाषा है, 3. वह सबसे अधिक लचीली भाषा है, 4, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं तथा 5. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है। 6. हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है। 7. हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासामर्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है। 8. हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है। 9. हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है। 10. हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मुहताज नहीं रही। ११. भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन अब मै कुछ प्रश्न आप सबके सामने रख रहा हू उम्मीद है इस पर विचार करेगे 1. हिन्दी की भारत मे क्या प्रस्थिति है? 2. अंग्रेजी बोलने वाला एक बेवकूफ की भी स्थिति समाज मे उच्च क्यो मानी जाती है? 3.शुद्ध हिन्दी बोलने वाला मसखरा है? जाहिल है? गंवार है? 4. अंग्रेजी माध्यम स्कूलो तथा अंग्रेजी युक्त उच्च शिक्षा के विरुद्ध आन्दोलन हिन्दी के रहनुमा लोग करेगे? 5.हिन्दी लिपि के सिमटाव के पीछे किसका कुचक्र है? 6. हिन्दी के अपमान की सजा का क्या प्रावधान है? सभी पाठको से अनुरोध है कि वे सोचे और मंथन करे कि इस सन्दर्भ मे क्या किया जाना चाहिये.. जय हिन्दी जय नागरी (via Vikas Gupta)
भारतीय संस्कृति
किसी भी भाषा में कोई भी शब्द तभी बनाया जाता है जब उस शब्द में निहित अर्थ का विचार उत्पन्न होता है. बहुत से विचार और शब्द केवल और केवल भारतीय (सनातन) संस्कृति में ही हैं और आंगला (अंग्रेजी) में ऐसा कभी सोचा ही नहीं गया. उदाहरण : पाप : इसके लिए sin शब्द है लेकिन पुण्य ? पुण्य के लिए अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है क्यूंकि पुण्य का विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ ! अभिषेक : इस के लिए कोई भी शब्द नहीं बना अंग्रेजी में क्यूंकि ये विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ. शील : इसके लिए कोई भी शब्द नहीं बना अंगरेजी में क्यूंकि ये विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ. किन्तु संस्कृत के साथ ये नहीं है. संस्कृत में हर विचार के लिए शब्द बनाया जा सकता है. ये object-oriented concept, inheritance, polymorphism....आदि ये सब संस्कृत में निहित हैं, लेकिन इनको हमने कभी विशेष नाम नहीं दिया गया है, बस इतनी सी बात है. जल्द ही संस्कृत प्रोग्रामिंग लैंग्वेज का आविष्कार हो जाएगा, तब भारत के अधिकाँश लोग ग्लानी से भर जाएंगे क्यूंकि उनको संस्कृत नहीं आती होगी.