इतिहास का तत्व विभिन्न परिस्थितियों मे व्यक्ति और समाज की रचनात्मक क्षमता का विश्लेषण करता है । मनुष्य केवल परिस्थितियों को सुलझाता ही नहीं, वह परिस्थितियों का निर्माण भी करता है । वह प्राकृतिक और भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करता है, समाजिक परिस्थितियों का वह सृष्टा है ।
इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परम्परा में आत्म-विश्लेषण है । जैसे नदी मे प्रतिक्षण नवीन जल बहने पर भी नदी का अस्तित्व और उसका नाम नहीं बदलता वैसे ही किसी मे जन्म-मरण की निरन्तर क्रिया और व्यवहार के परिवर्तन से वह जाति नहीं बदल जाती । अतीत में अपने रचनात्मक सामथर्य और परिस्थितियों के सुलझाव और रचना के लिए निर्देश पाती है ।
इतिहास के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक रत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है । सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीडा है । इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था- "न मानुषात् श्रेष्ठतरं ही किंचित् !"
मनुष्य से बडा है केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान । अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है ।
यह विचार चितंन प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल जी का है जो उन्होने अपने उपन्यास दिव्या में प्रस्तुत किया है । उनका यह चिंतन आज के युग मे भी प्रासगिंक है ।